कृषि क्षेत्र मे स्वास्थ्य व्यवस्था
स्वास्थ्य एक ऐसा पहलू है जो किसी समाज का प्रथम परिचय देती है. मानव शिशु
सर्वप्रथम समाज को इसी सेवा के माध्यम से जानता है. और ग्रामीण भारत लगभग मध्य काल
से उचित स्वास्थ्य सेवाओ से वंचित है. आज जब देश का किसान एक मजबूत भारत की कामना
मे अपने अपने औजार से एक सुनहरे भारत की नींव रखने जा रहा है तो हम कामना करते है
कि उनका हर योगदान हृदय-दान समझा जाये. इनके लौह से बने सरदार की प्रतिमा, इनके स्वभाविक
अधिकारो की फौलादी प्रहरी बन जाए. इस पावन प्रतीमा के नीचे ऐसे शासन की रचना हो जो
भारत की जीवनशैली को स्वास्थ्य, शिक्षा और अभिमान का अधिकार दे.
जनमानस की एक खासियत है कि वह खुद से कभी आश्चर्य नही करती. उसे आश्चर्य कराया
जाता है. कई विद्वानो ने समय समय पर यह पुनित कार्य कराया है. मै विद्वान तो नही
हूँ, लेकिन आश्चर्य करवाने का प्रयास करुँगा. विशेष जनता के मत
पर. विषय है भारत के कृषि क्षेत्र मे स्वास्थय व्यवस्था का. कृषि क्षेत्र मे
स्वास्थय व्यवस्था अत्यधिक खस्ताहाल है, यह हमेशा से सुनने को मिलता रहा है. अब आश्चर्य
किजिए, मुझे लगता है कि इतिहास ने या कालक्रम ने ग्रामीण व्यवस्था
मे स्वास्थ्य को अपने रसायनिक उत्पाद के खपत का जरिया बनाया है. मध्यकालीन भारत मे
देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बिगड गई और आज तक नही संभल सकी. जो लोग आपके सांस्कृतिक
विरासत को अतीत का अध्याय बताते हैं और आधुनिक होने की दुहाई देते हैं उनसे पुछिए
कि देश की जनता का स्वास्थ्य पिछ्ले 800 वर्षो से पट्डी पर क्यो नही है? कृषि क्षेत्र मे एक
सरकार की कई संस्थाएँ एक ही क्षेत्र मे अलग अलग कार्य करती है. वजह तो सरकार ही
बेह्तर जानती है. प्राथमिक स्वास्थय केंद्र, आंगनबाडी, गैर-सरकारी संगठन और नजदीक के शहर मे मजबूती से
स्थापित चिकित्सा सेवा का निजी क्षेत्र, सब ग्रामीण स्वास्थ्य के
शुभचिंतक है. हर एक घर मे, एक-एक व्यक्ति तक स्वास्थ्य के नाम पर डाईजिन, पारासिटा मोल और
क्रोसिन पहूँचाकर बढिया सेवा प्रदान किया गया है. और इस पुनित कार्य के लिये आपकी
सरकार ने बडे तनमयता से कार्य किया है. हमारे आधुनिक अर्थशास्त्री आज मुझे अधिक
व्यर्थ महसूस हो रहे हैं. जब समाज का दो पैमाने पर ही उचित मुल्यांकन किया जा सकता
है तो अनर्थ मे ही अन्य असंख्य पैमाने बना दिये. मानव विकास सुचकांक, सकल घरेलु उत्पाद, आर्थिक विकास दर या
अन्य किसी भी उपकरण से समाजिक विकास को नियोजित नही किया जा सकता है. इस देश को दो
दशको तक भ्रम मे रखा गया है.
भारत मे स्वास्थय
अब एक ऐसे देश मे स्वास्थय सेवाओ की क्या समीक्षा की जाये जहाँ 30 बच्चे एक
साथ मध्याहन भोजन करके मर जाते हैं. अब एक बार फिर से आश्चर्य किजिए, बच्चो के भोजन मे
कीटनाशक की मात्रा आवश्यकता से अधिक थी. अब आप विचार कर लिजिए कि भोजन मे आपको
कितने कीटनाशक की आवश्यकता है. केरल के लोगो ने ज्यादा माँगा तो सरकार ने
हेलिकॉप्टर से आपुर्ति करा दिया. ऐसी तत्पर सरकार का सौभाग्य प्राप्त है हम
भारतियों को. थोड़ा और आश्चर्य होगा लेकिन फिर भी बता देता हूँ, केरल हमारा अग्रणी
राज्य है. इतना ही नही, गाय-भैंस के लिये ऑक्सीटोसीन, फल तथा सब्जियो के
त्वरित पैदावार के लिए इंसुलिन की सुईयां, सब उपलब्ध कराई है बाजार मे हमारी सरकार ने.
इसके अलावा सरकार ने कई विदेशी कम्पनियो को देश मे दवा बनाने और बेचने के लिये
बुलाया. कुछ कम्पनी ने ऐसी दवाए बेची जिसका मेडिकल साईंस के इतिहास और वर्तमान मे
कोई अस्तित्व ही नही है. अब ऐसे देश मे राष्ट्रीय स्वास्थय नीति की क्या समीक्षा
की जाये.
भारत मे स्वास्थय की
ऐतिहासिक झाँकी
भारत मे स्वास्थ्य सेवाओं का अवलोकन तीन कालखंडो मे किया जा सकता है. प्राचीन, मध्यकालीन और
आधुनिक. प्राचीन भारत मे आयुर्वेद का जन्म हुआ. यह एक ऐसी चिकित्सा पद्धति थी
जिसने समाजिक, मानसिक और आर्थिक सामंजस्य के साथ मनुष्य के बिरवे को ठोस
आधार प्रदान किया. इतिहासकारो के यात्रावृतांत मे यह एक निर्विवाद सत्य है कि यह
एक सर्वसुलभ और हितकारी चिकित्सा पद्धति थी. मध्यकालसे पुर्व इसके अनेक प्रभाग
विकसित हो चुके थे. काया चिकित्सा बीमारियो के उपचार की समान्य सेवा थी. कौमार्य भ्रत्य
बच्चो के चिकित्सा का प्रभाग था. इसके अलावा शल्य चिकित्सा, सालाक्य तंत्र (ENT), भुतविद्या (psychiatry), अगादतंत्र (toxicology), रसायन तंत्र (Elixirs) पूर्ण विकसित प्रभाग थे. वैदिक स्वास्थ्य व्यवस्था का सम्पूर्ण चित्रण संस्कृत के श्लोक से होता है –
सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे भवंतु निरामयः . वैदिक जीवनशैली को स्वास्थ्य शिक्षा से
सुसज्जित किया गया था. दिनचर्या स्वास्थ्य शिक्षा का भी अंग था और जीवनशैली का भी.
मध्यकाल की परिस्थितियों ने इस अज्यम पद्धति का
संस्थागत विकास अवरुद्ध कर दिया. यह पद्धति केरला जैसे राज्य मे अपने जीर्ण-शीर्ण
अवस्था मे जीवित रही, जहाँ मुगल शासन या उसका प्रभाव नही रहा. राजनैतिक अराजकता ने समाज की
व्यवस्था को जड़ से उजार दिया. रहा सहा कसर अँग्रेजों ने पुरा कर दिया. इनके समय मे
तो कृषि व्यवस्था भी चौपट हो गया. और यही वक्त था कि जब भारत मे भुखमरी के चलन का
शुरुआत हुआ. गरीब जनता कुपितावस्था मे स्वास्थ्य के प्रति उदासीन हो गई. फलतह
संक्रामक रोग भी बड़े पैमाने पर फैलने लगे. और इसी के साथ भारत मे भी पश्चिमी
चिकित्सा की लोकप्रियता बढी जिसे एलोपैथी कहा जाता है. इसमे कही से कोई मतभेद नही
है कि यह पद्धति सबसे आधुनिक और सबसे संतुष्ट रोग उपचार और रोकथाम का साधन है.
लेकिन बाजार ने इस पद्धति को अपने उपकरण के रुप मे इस्तमाल कर लिया. विज्ञान और
प्रौद्धोगिकी के विकास को जिस पर सारे चिकित्सा पद्धतियो का समान हक था, उसे एलोपैथ की उपलब्धि के रुप मे
प्रचारित किया गया. और इस तरह से आयुर्वेद अपने पैदाईसी ज़मीन पर ही उपेक्षित रहा. अस्सी
के दशक मे जब कुछ विचारको ने सरकार पर देशी पद्धति के विकास के लिये दबाब बनाया तो
सरकार ने इसे राष्ट्रीय स्वास्थय नीति मे शामिल तो कर लिया लेकिन इसके विकास का
मॉड्ल भी पश्चिमी ही रहा. इस मॉडल मे आधी उर्जा उपलब्ध तथ्यो की सत्यता जाँचने मे
जाती है और आधी रिसर्च की पेटेट संस्कृति को निभाने मे. केरल जैसे राज्य मे
आयुर्वेद जिस रुप मे वैद्दों के आंगन मे जीवित था उनसे यह अधिकार अघोषित रुप से
छीन लिया है इस पेटेंट बाबा ने. और आज आयुर्वेद पद्धति से चिकित्सा एलोपैथी से भी
महंगा है. अगर यही सोच रहा तो हम कैसे बना पायेंगे इसे सर्वसुलभ. हमारा उद्देश्य
यह नही बन पा रहा है कि कैसे शोध को एक साकारात्मक सोंच दिया जाए.
वर्तमान मे स्वास्थ्य सुविधाएँ
इस बात की चर्चा करना बेमानी लगता है कि कैसे- कैसे
इस देश मे आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओ का विकास हुआ. भोरे रिकॉमेंडेशन क्या है कब क्या
हुआ? मुझे यह जानना ज्यादा
तर्कसंगत लगता है कि सरकार के नजर मे स्वास्थ्य की क्या अवधारणा है? क्या हमारे स्वास्थ्य को बाजार के
भरोसे छोडा जा सकता है? चिकित्सा के लिये चिकित्सक के बजाए हम लाटसाहब क्यों पैदा कर रहे हैं? क्या हम चिकित्सा सेवा को मरीज के
घर तक नही ले जा सकते हैं? क्या यह सच है कि हमारे देश मे समाजिक
विकास कार्य संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न शाखाओं के निर्देश के बाद या अनुसार
संचालित होती है? अगर हाँ, तो हमारे देश की अपनी चेतना कहाँ सो गई है? फिर बताइये, हमारे विकास मे
हमारे नेताओं का क्या योगदान है? क्या यह सच नही है कि निर्धारित समय मे जब तक आप उपलब्ध
प्राथमिक उपचार केंद्र के साथ सब तक पहुँचना चाहते है तब तक जनसंख्या बढ जाती है
और आप लक्ष्य पुरा करने के बजाये फिर से नये केंद्र बनाने चले जाते है? क्या इस सरकार को
पता नही है कि प्राथमिक उपचार केंद्र मे कवक संक्रमण की दवा भी नही है?
अंततः आधुनिक स्वास्थ्य के उपलब्धियों पर ही चर्चा कर लिया जाये. राष्ट्रीय
स्वास्थ्य नीति के तहत हमने 2010 तक हेल्थ फॉर ऑल का लक्ष्य रखा था. हम 2014 तक इस
लक्ष्य को हासिल नही कर सके हैं. हम अभी तक छह लाख गाँव के लिये लगभग 30000 प्राथमिक
उपचार केंद्र ही बना पाये हैं. मतलब 18 गाँव के लिये एक स्वास्थ्य केंद्र. मेरा
ज्ञान जितने PHC को
मेरे लोकलिटी मे जानता है बहुत जगहो पर नियमित चिकित्सक तो नही ही है, चिकित्सा भी नियमित नही है. जब
सरकार चिकित्सक पद की रिक्तियों की नियमित भर्ती के लिए आवेदन न माँगे, कैसे कहा जा सकता है
कि समाजमे चिकित्सक की कमी है. सरकार नीति तो सब तक पहूँचने का बनाती है और कार्य
सिर्फ एम्स बनाने का करती है. ऐसे कृत्य से हमारा ग्रामीण भारत एम्स के आई.सी.यु
मे आ गया है.
प्राथमिक उपचार केन्द्रो पर उपलब्ध
संसाधन का ग्रामीण आवश्यकताओं के साथ कोई मेल नही दिखता है. केंद्र का सबसे बड़ा
संसाधन चिकित्सक होता है जिसके पास कोई कार्य-योजना नही है. इन चिकित्सको के पास
कोई समाजिक लक्ष्य नही है. वस्तुगत संसाधनो का भी अभाव है. और तो और रोगी भी
ज्यादतर ऐसे ही आते है जिन्हे डॉक्टरी सर्टिफिकेट पर एफ आई आर करना होता है वरना
ज्यादातर झोला छाप या प्राईवेट डिस्पेसरी से काम चला लेते हैं. एक बड़ी आबादी जो कुपोषण से पीड़ित है उसके जीवन
मे स्वास्थ्य केंद्र या दवाओं के उपलब्धिता का क्या महत्व है? प्रसुति के प्रसव की उचित व्यवस्था भी अगर इन
केंद्रों पर नही है तो फिर स्वास्थ्य नीति के शब्द और उद्देश्यों का क्या महत्व रह
जाता है? आँकड़ो के मकड़्जाल मे फँसाकर सरकार बताती है कि फलाने
राज्य मे इंसट्यूशनल डिलिवरी इतना परसेंट ही है. हमे लोगो को इसकेलिये शिक्षित
करना है. निकम्मी सरकारे यह नही बताती की इंसटिट्युशनल डिलीवरी के लिये इन्होने
अभी तक आधारभूत संरचनाये नही बनायी है. जितने पैसे ये आयरन की गोलियां बाँटने मे
खर्च करती है उतने मे तो यह संतुलित आहार ही उपलब्ध करवा सकती थी. लेकिन ऐसा नही
करती है. क्यो?!!!
बदलते खान पान, स्वार्थ मे सना आचार-विचार और संकीर्ण रहन-सहन हमारे
लिये बीमाड़ियों के रुप मे नयी चुनौतियां खड़ा कर रहा है. हमारी स्वास्थ्य नीति इन
चुनौतियों की भावी विक्रालता से अनभिज्ञ है. कल तक शुद्ध जल हमारी चुनौती थी, आज संतुलित आहार की जगह शुद्ध आहार ही हमारी चुनौती
बनता जा रहा है. व्यसन की समस्या जस की तस अपने जगह विराजमान है. इस समस्या का एक
ही हल है व्यसन मे प्रयुक्त साधनो के उत्पादन पर पूर्णतः पाबंदी. लेकिन इस कार्य
के लिए सरकार के पास पर्याप्त हेकड़ी नही है.
परिष्कृत खाद्य-पदार्थों मे मौजूद
रसायन ह्र्दय के धमनियो मे विकार उत्पन्न कर ह्र्दय संबंधी बीमारियां बढा रहे हैं.
कृषि मे रसायन का अंधाधुन इस्तमाल न सिर्फ
आहार को दूषित कर रहा है बल्कि भुमिगत जल को भी दूषित कर रहा है. इतना ही नही
कैंसर के मरीजो की तादाद बढने का भी यह एक कारण है. अब जरा आश्चर्य किजिए, एंजिला जोली की स्वास्थ्य शिक्षा कही स्वास्थ्य नीति
का हिस्सा तो नही है? शायद इसीलिये सरकार
का ध्यान सुपर स्पेशियालटी अस्पताल बनवाने पर तो नही है? आपको शक हो उससे पहले ऑप्रेशन करवा लिजिये. खुदा खैर करे.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति मे
शिक्षा के समायोजन की बात की गयी है लेकिन भुमि पर इसके साक्ष्य नही दिखते हैं.
शारीरिक शिक्षा की बात की गई है लेकिन गाँव मे खेल-कूद की व्यवस्था नही दिखती है.
यह सरकार सारे खेल शहरो मे ही करा लेती है. गाँव के सीधे प्रतिनिधित्व की कोई
व्यवस्था ही नही है. क्या स्वास्थ्य के लिये अलग खेल-कूद है और शिक्षा और मेडल के
लिये अलग. वही खेल-कूद ग्रामीण भारत को स्वस्थ्य बनायेगा जो ओलंपिक से मेड्ल लाता
है वह पुस्तक नही जो क्रिकेट की पिच को 22 गज बताता है. ओलंपिक का चार्टर कहता है-
"The practice of sport is a human right.
Every individual must have the possibility of practicing sport, without
discrimination of any kind and in the Olympic spirit, which requires mutual
understanding with a spirit of friendship, solidarity and fair play." खेल – कूद
और मनोरंजन दोनो स्वस्थ्य जीवन के प्रतिनिधि हैं. ग्रामीण समाज से इन प्रतिनिधियो को खत्म कर दिया गया है. आज यह समाज शहर जनित
मनोरंजन और खेल-कूद का उपभोक्ता मात्र है, उत्पादक नही. और यह इसके अस्वस्थ होने का महत्वपूर्ण कारण है.
इससे पहले कि एम्स के ICU मे ग़्रामीण स्वास्थ्य और अस्वस्थ्य हो जाये आईए एक बहुआयामी सोंच के साथ
ग्रामीण जीवनशैली को प्रतिष्ठित करे. स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनशैली मे सामंजस्य के लिये कार्य करे. पिछले दो दशक की पागल दौर
ने कई बंजारो का समूल नष्ट कर दिया, अब इन गाँव मे बरसो से
कोई आल्हा-रुदल की कहानियाँ सुनाने नही आता है. घुरे मे धान की बालियो से बने लावा
के सुगंध मे नहायी शीत, बंजारो के संगीत की आश
मे आज भी अस्व्स्थ्य है. इसे इसका मौलिक जीवन लौटा दो. इंहे इनका स्वास्थ्य लौटा
दो.


