चुनाव की पटकथा तैयार है. मंचन की तिथि एवम व्यवस्था सुनिश्चित है. इतिहास, वर्तमान और डार्विन
व मार्क्स जैसो के विचार से बने अस्तित्व का दीर्घकालिक प्रश्न, सब कमान मे रख लिये
गये हैं. चुनाव नही किसी जंग की तैयारी है. आजादी के इतने वर्ष बाद जनता आज भी इस बात
से अंजान है कि चुनाव का सबसे ज्यादा जिसने खामियाजा भुगता है वह स्वयं जनता है, वह है कृषक भारत और
उसकी ग्रामीण जीवनशैली. आश्चर्य होना अवश्यमभावी है कि ग्रामीण भारत जो की कोख है
भारतीय फौज का, जिनके बच्चे सरहद की हिफाजत करते है, उन्हे कश्मीर के
नाम पर डराया जाता है. जिनका जीवन प्रगतिशील समाज का ईन्धन बन कर रह गया है. वह समाज आज भी अपनी
राजनीतिक बुनियाद स्थिर करने के बजाये प्रतीकात्मक राजनीति से ज्यादा प्रेरित
प्रतीत होता है. पीछले दो दशक के आर्थिक सफर ने समाज से वस्तुनिष्ठता का सफाया कर
इसके चेतना को निष्क्रिय कर दिया है.
कृषि पर कुछ बोलना हो तो सबसे पहले जो बात राजनेताओ के मुख मे आता है वह है
इसमे शामिल देश की दो-तिहाई आबादी. नेता तो इतनी बडी आबादी का मतलब समझते हैं, जरुरत है की यह नीरीह
आबादी भी इस बात का मतलब समझ जाये. इतनी बडी आबादी पिछले छ: दशक से राजनैतिक दृष्टिहींता
और आर्थिक धोखेबाजियों का निरंतर शिकार रही है. यह आबादी पूर्णतह असंगठित रहा है.
इस आबादी की राजनीतिक सक्रियता मे दूरदरशिता का अत्यधिक अभाव देखा जा सकता है. यही
वजह है कि अखिल भारतीय स्तर पर इस आबादी का कोइ प्रतिनिधि मंच नही है जो अपने हित
के लिये सरकार पर उचित दबाब बना सके. यही करण है कि भावी प्रधानमंत्री FICCI मे अपनी हाजरी तो फुल डे के लिये
रखते है लेकिन कृषि पर सामुहिक मंच पर ही चतुराई से सपने दिखा निकल लेते है. राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ जो इस आबादी से अपना प्राण प्रथिष्ठता ग्रहण करती है, जिनका नैतिक जिम्मेवारी है इस जनमानस के
प्रतिनिधित्व का, इस मुद्दे पर या तो
पुर्वाग्रह से ग्रसित हैं या फिर अर्थशास्त्र
के बाजार मे दूषित हो गये हैं. क्या रणनीति है भावी सरकार की? कौन होगा देश का भावी कृषि मंत्री? लैंड होल्डिंग पर आमदनी कैसे तय
करेंगे? यह सब्सिडी के लोलीपॉप
का नविन संस्करन तो नही होगा? ये कुछ ऐसे प्रश्न है
जिसका उत्तर अत्यंत आवश्यक है. बैल के डॉक्टर से कृषि का फायदा होना लाजमी है
लेकिन यह तो रोग का ईलाज है, समस्या का हल नही है. जनता हर शाताब्दी मे बस आज़ादी की लडाई लडती रहेगी? ऐसा करेंगे आप तो जनता तो शासन
स्वयम कर् ले. इस आबादी को सरकार ने अपने अपने मंत्रालयों मे बडी बेरहमी से बॉटा
हुआ है. मसलन आबादी का सर- कृषि
मंत्रालय के पास है. आत्म- ग्रामीण विकास मंत्रालय मे, जिज्ञाशा- विज्ञान प्रौध्योगिकी
एव् पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पास, शरीर- मानव संसाधन, तथा अस्तित्व समाजिक न्याय एवम अधिकारिता मंत्रालय के पास. एक आदमी का
ऑप्रेशन अलग अलग टेबल पर इंसटॉलमेंट मे करेंगे, तो जनता तो मरती रहेगी. जनता की
ना भी सोचो, आप अपने मेडिसीन के
प्रोटोकॉल तोडोगे तो इसका असर आपके पेटेंट पर होना लाजमी है. पह्चान की राजनीति
करे आप और दो तिहाई आबादी को पहचानने से परहेज हो, इतिहास ऐसी राजनीत को दंडित करने का सलाह देती है. जब देश आजाद
हुआ, देश के सबसे बडे किसान
नेता सरदार पटेल देश को एक ठोस आकार देने मे जुट गए और कार्यको अंजाम तक पहुँचाया.
कार्य करने की एक अनूठी शैली विकसित की, प्रशासनिक व्यवस्था को स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया कहा और एक सशक्त भारत के लिये प्रतिभावान
प्रशासको को प्रेरित किया. लेकिन कालक्रम के प्रदूषण ने इस मजबूत व्यवस्था पर राजनीति
का जंग लगा दिया. 1950 ई. मे सरदार जी के मृत्यु के बाद इस कृषक देश को अखिल भारतीय
नेता नही मिला. यही सत्य है. भू-दान आंदोलन से बिनोवा भावे ने कृषक भारत मे जिस सामंजस्य
की राजनीति की नींव रखी थी, उसे कालांतर मे जातीवादी
राजनीति निगल गई.
हमारे देश की जनता अब निरीह नही रही . दिल्ली के चुनाव से तो कुछ ऐसा ही लगता है
. आज तक व्यवस्था परिवर्तन का श्रेय नेता को ही मिलता रहा है. खुद जनता ही अपने
योगदानो को भूल जाती हैं. यही वजह है की हमारे यहां चेहरों की राजनीति होती रही
है. हम एक ईमांदार के कंधे पर बिना गुणवत्ता जांच किए 545 बेईमान/ईमांदार को
दिल्ली भेज देते हैं. अपने बिहार दौरे पर मोहन भागवत जी ने कहा था, “भारत जैसे विशल देश मे अधिक नायको की जरुरत है, एक नायक से हमारा काम
नही चलेगा”. ऐसे वक्त मे राजनीति
को सिर्फ प्रधानमंत्री पर केंद्रित करना क्या उचित होगा. क्या हमे व्यापक दर्शन और
कार्यप्रणाली को चुनावी रणनीति मे स्थान नही देना चाहिए. अगर ऐसा नही होगा तो फिर से
कृषक भारत अगले पांच वर्षो के लिए व्यवस्था मे गुलाम बनी रहेगी.
कृषि का मतलब सदैव फसल और पशुपालन ही बना रहेगा. जबकी इस क्षेत्र मे ही शिक्षा, स्वास्थय, मनोरंजन, खेल और अन्य कई गतिविधियां है जो मनुष्य के सर्वांगिन
समाजिक विकास मे आवश्यक है. इनका लाभ ग्रामीण भारत को कब मिलेगा. स्थानीय स्वशासन जिसे
केंद्र और राज्य उपनिवेशिक मांसिकता से संचालित कर रहा है, वह गाँधी का स्वराज कैसे बनेगा. कैसे होगा ग्रामीण
भारत का समग्र विकास. माननीय मोदीजी ने प्रधानमंत्री के पद के लिए बल्लेबाजी पुने के
फर्गुशन कॉलेज से की है. यह गौर करने की बात है कि देश के प्रथम कृषिमंत्री ने यही
से शिक्षा ग्रहण किया था. वह विदर्भ के निवासी थे. हम सब जानते है यह क्षेत्र आज क्यो मशहूर है. इतिहास सबके लिये सबक है. यह ना
तो किसीका अपना है न पराया. आजादी के बाद हमने दो पीढियों का सफर कर लिया है लेकिन
हमारी समस्याएँ आजादी की दहलीज न पार कर सकी. कृषि अपनी मूलभुत समस्याओंके साथ-साथ
अर्थव्यवस्था के त्रुटियों का भी खामियाजा अपने माथे पर ढो रही है. कृषि कार्य एक उद्यम
है लेकिन इसे ना तो उद्योग का दर्जा प्राप्त है और ना ही व्यापारिक नियमो को अपनाने
की स्वतंत्रता. जिन्हे बिजनेस अकॉउन्ट्स का जरा सा भी अनुभव है वह आसानी से इस नतीजे
पर पहूँच सकते है कि इस देश मे एक कृषक भारत है और एक चालाक भारत. चालाक भारत ही कृषक
भारत का सबसे बडा एमपलॉयर भी है. किसान के बच्चे इसी चालाक भारत मे शिक्षा व रोजगार
के लिये भटकते रहते है. जबकि कृषक भारत मे एक सुदृढ अर्थव्यवस्था संचालित करने का सामर्थ्य
भी है और संसाधन भी. फिर हम साठ वर्षो से क्या कर रहे थे? आज वक्त है कि साठ बरस मौन रहे मुख अब मुखर हो, अन्यथा इतना विलम्ब हो जायेगा कि सुधार न हो सकेगा.
भाजपा से राजनाथ सिंह और आप
से संजय सिंह बडी तनमयता से किसान की समस्या को उठाते हैं, लेकिन सटीक हल बताना भूल जाते हैं. अमेठी का चुनाव तो वही जीतेगा जो कृषि को प्राण
प्रतिष्ठा दिलाने का हुनर जानता है. प्रेम मे लिखी कविताओ से राजनीतिक माइलेज अब नही
मिलेगा और ना ही देशी बॉय का फंडा काम आएगा, क्योकि सरकार की बेवफाई ने हर किसान को कवि बना दिया
है. आशा करता हूँ कि ग्रामीण भारत देश की राजनीति को अपनी तरफ मोडे.
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